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मित्रता मैं विश्वासघात प्रसंग

इस विषय में एक पुराना इतिहास सुनाता हूं ;यह घटना उत्तर दिशामें घटित हुई मध्य देश का एक ब्राह्मण था 
जिसने वेद बिल्कुल नहीं पड़ा था ।

मित्रता मैं विश्वासघात प्रसंग


 एक दिन वह कोई संपन्न गांव देखकर उसमें भीख मांगने के लिए गया ।उस गांव में एक दस्यु रहता था जो बहुत ही धनी ब्राह्मण भक्त सत्य प्रतिक और दानी था ।ब्राह्मण ने उसी के घर पहुंच कर भिक्षा के लिए याचना की दस्यु ने ब्राह्मण को रहने के लिए एक घर देकर बरस  भर निर्वाह  के योग्य अन्य की दीक्षा का प्रबंध कर दिया और नया कारोबार वस्त्र देकर उसकी सेवा में एक नवयुवती दासी भी दे दी । जो उस समय पति से रहित थी।

मित्रता मैं विश्वासघात प्रसंग


दस्यु से सारी चीजें पाकर ब्राह्मण मन ही मन बहुत खुश हुआ । घर दासी के साथ आनंद पूर्वक रहने लगा। उसका नाम गौतम था।
वह भी दस्युओं की तरह प्रतिदिन बनमें विचरने वाले हंसों का शिकार करने लगा। हिंसा में बढ़ा प्रवीण निकला। दया तो उसको छू भी नहीं गई थी। सदा प्राणियों को मारने की टॉक में लगा रहता था। डाकू ओ के संसर्ग में रहकर वह पूरा डाकू वन गया।
इस प्रकार दस्युओ के गांव में सुख पूर्वक रहकर पक्षियों का शिकार करते हुए कई महीने बीत गए । तदनन्तर उस गांव में एक दूसरा ब्राह्मण आया । जो स्वाध्याय परायण पवित्र विनय नियम के अनुकूल भोजन करने वाला भक्त वेद का पारंगत विद्वान तथा ब्रह्मचारी था। वह गौतम के ही गांव का रहने वाला और उसका प्रिय मित्र था शुद्र का अन्न नहीं खाता था ।इसलिए उस दस्यूओंसे भरे हुए गांव में ब्राह्मण के घर की तलाश  करता हुआ वह सब ओर विचर रहा था । घूमते घूमते गौतम के घर पर जा पहुंचा ; इतने ही में गौतम भी वहां आया दोनों की एक दूसरे से भेंट हुई ।ब्राह्मण ने देखा गौतम के कंधे पर मरे हुए हंस की लास है और हाथ में धनुष बाण है उसका सारा शरीर खून से रंग गया है। देखने में वह राक्षस सा जान पड़ता है । और ब्रहाम्णत्व से भ्रष्ट हो चुका है ।
इस अवस्था मैं पढे हुए गौतम को पहचान कर आगंतुक ब्राह्मण को बढ़ा संकोच हुआ । उसने उसे धिक्कारते हुए कहा -अरे ! तू यह किया कर रहा है । ब्राह्मण होकर डाकू कैसे बन गया जरा अपने पूर्वजों को तो याद कर उनकी कितनी ख्याति थी। वे कैसे वेदों के पार गामी विद्वान थे। और तू उन्हीं के वंश में पैदा होकर कलंक निकला । अपने हितेषी सुह्दके इस प्रकार कहने पर गौतम मन ही मन निश्चय करके आर्त सा होकर बोला

  गौतम -दृजवर  मैं निर्धन हूं और वेद का एक भी अक्षर नहीं  जानता धन कमाने के लिए इधर आया था । आज आपके दर्शन से मेरा जीवन सफल हो गया है। अब रात यहां रहिए कल  हम दोनों साथ ही चलेंगे ब्राह्मण दयालुता था   । गौतम के अनुरोध से उसके यहां ठहर गया मगर वहां कि किसी भी वस्तु को उसने छुआ  तक नहीं यद्यपि वह भूखा था । और भोजन करने के लिए उस से प्रार्थना भी की गई परंतु किसी तरह वहां का अन्य ग्रहण करना उसमें स्वीकार नहीं किया । सवेरा होने पर जब वह  चला गया तो गौतम भी घर से निकल कर समुद्र की ओर चल दिया ।

वह एक दिव्य वन  में पहुंचा वहां के सभी वृक्ष फूलों से भरे हुए थे वह नंदनवन को मात कर रहा था । उस बन में यक्ष और किन्नर भी विचर  रहे थे । चारों ओर पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ता था ।मनुष्यों के समान मुख वाले भारुंड बोलते थे ।समुद्र और पर्वतों पर होने वाली भूलिंग यादि पक्षी चहचहा रहे थे ।इतने में उसकी दृष्टि एक वरगद  के विशाल वृक्ष पर पड़ी जो चारों ओर मंडल आकार फैला हुआ था। बहुत ही सुंदर होने  के कारण वह एक महान छत्र के सामान जान पडता था ।उसकी जड़ चंदन मिश्रित जल सींची गयीं थी।मनोरम दृश्य देखकर गौतम  जाकर उसकी छाया में बैठ गया । उस समय वहां की पवित्र बायु से बड़ी शांति मिली और वह सुख का अनुभव करता हुआ वहीं बैठ गया । उधर सूर्य भी डूब गया।
उसी समय एक उत्तम पक्षी ब्रह्मलोक से लौट कर अपने विश्राम स्थान पर आया ।वह उस वृक्ष पर ही बसेरा लिया करता था ।उसका नाम नाडीजंग था ।वह बक राज ब्रह्मा जी का प्रिय मित्र और कश्यप जी का सुपुत्र था । इस पृथ्वी पर राजधर्मा  के नाम से विख्यात था ।देवकन्या से उत्पन्न होने के कारण उसके शरीर की कांति देवता के समान थी । वह बड़ा विद्वान था और दिव्य तेज से देदीप्यमान दिखाई देता था । गौतम को उस समय भूख सता रही थी इसलिए उस पंछी को आया देख उसने उसे मार डालने के विचार से ही उसकी ओर दृष्टिपात किया।
तब राजधर्मा ने कहा मित्रवर यह मेरा घर है आप यहां पधारे हैं यह मेरे लिए बड़े सौभाग्य की बात है मैं आपका स्वागत करता हूं ।

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सूर्यास्त हो गया है संध्या के समय आप मेरे घर में उत्तम अतिथि के रूप में आए हैं ।इसलिए मैं शास्त्रीय विधि के अनुसार आज आपकी पूजा करूंगा । रात में मेरा आतिथ्य स्वीकार करके कल सवेरे यहां से जाइएगा ,मैं महर्षि कश्यप का पुत्र हूं मेरी माता दक्ष प्रजापति की कन्या है ।आप जैसे गुणवान अतिथि का मैं स्वागत करता हूं। राजधर्मा ने गौतम का विधिवत सत्कार किया साल के फूलों का दिव्य आसन बनाकर उसे बैठने को दिया ।बड़ी-बड़ी मछलियां लाकर रख दीं और उन्हें पकाने के लिए आग प्रज्वलित कर दी ब्राह्मण जब भोजन करके तृप्त हो गया तो वह तपस्वी पक्षी उसकी थकावट दूर करने के लिए अपने पंखों से हवा करने लगा । विश्राम के पश्चात जब वह बैठा तो राजधर्मा ने  उससे  गोत्र  पूंछा किंतु इसके उत्तर में वह और कुछ ना कहकर सिर्फ इतना ही बता सका कि मैं ब्राह्मण हूं ।और मेरा नाम गौतम है राजधर्मा ने  उसके लिए पत्तों का बिछौना तैयार किया । उस पर गौतम ने बड़े आराम से विश्राम किया जिस समय वह उस पर बैठा राज धर्मा ने वहां आने का कारण पूछा गौतम बोला महाप्राज्ञ| मैं  निर्धन हूं और धन के लिए समुद्र तक जाना चाहता हूं राजधर्मा ने प्रसन्न होकर कहा द्रृजवर आप समुद्र तक जाने की चिंता ना कीजिए यही आपका काम हो जाएगा यहां से धन लेकर घर जाइएगा बृहस्पति जी के मत के अनुसार चार प्रकार से अर्थ की प्राप्ति होती है वंश परंपरा से ,देव की अनुकूलता ,से काम करने से, और मित्र की सहायता से ,अब मैं आपका मित्र हो गया हूं आपके प्रति मेरे हृदय में पूर्ण सौहार्द्र है। अतः में ही ऐसा उपाय  करूंगा जिससे आपको अर्थ की प्राप्ति हो जाएगी । जब प्रातकाल हुआ तो राज धर्माने ब्राह्मण सुख का उपाय सोच कर उससे कहा। सोम आप इस मार्ग से जाइए आपका कार्य सिद्ध  हो जाएगा यहां से 3 योजन की दूरी पर मेरेे एक मित्र रहते हैं ।उनका नाम है विरुपाक्ष बेे राक्षसों  के राजा है और महान बली हैं। मेरे कहने से उन्हीं के पास चले जाइए  निसंदेह आपकी  कामनाएं पूर्ण करेंगे ।उसकेे ऐसा कहने पर गौतम विरुपाक्ष के नगर की ओर चल दिया । मीठे फल खाता हुआ हआगे बढ़ने लगा और मेरुव्रज नामक नगर पहुंच गया । उस नगर के चारों ओर  पर्वतों की  4  दिवारी थी ।उसका दरवाजा  भी  एक  पर्वत  ही था ।नगर की  रक्षा  के लिए  सब ओर बड़ी-बड़ी  चट्टाने  लगी  थी । राक्षस राज को यह सूचना दी गई कि आपके मित्र ने अपने एक प्रिय  अतिथि  को आपके पास भेजा है यह समाचार पाकर उसने सेवकों को  आज्ञा  दी  और  गौतम को  नगर द्वार से बुलाकर  शीघ्र लाने को कहा  आज्ञा  पाते ही नौकर गौतम को  पुकारते हुए  राजा के  पास  बाज की तरह झपट कर  ले आए  जल्दी चलो  हमारे राजा तुमसे मिलना मिलना चाहते है। बुलावा सुनते ही गौतम की थकावट दूर हो गई वह दौरा होगा राक्षस राज की तरफ गया महा समृद्धि देख कर उसेे बड़ा विस्मय हो रहा था वह मन ही मन सोच रहा था। सेवको के साथ शीघ्र राज महल में पहुंचा । वहांं विरुपाक्ष ने उसका विधिवत पूजन किया । उत्तम आसन पर विराजमान हुआ तो राक्षस राज ने उसकी गोत्र  शाखा और ब्रह्मचर्य अवस्था में किए हुए स्वाध्याय के विषय मेंं पूंंछा  किंतु वह जाति के अलावा कुछ  न वता सका।
तब राक्षस राज ने पूछा की भद्र तुम्हारा निवास कहां है तुम्हारी पत्नी कौन है और किस जाति की है यह सब ठीक ठीक बताओ डरो मत गौतम बोला मेरा जन्म तो हुआ है मध्यदेश में मगर में भीलों के घर में रहता हूं मेरी स्त्री भी शूद्र जाति की है ।और मुझसे पहले दूसरे की पत्नी रह चुकी है। यह मैं सत्य ही कहता हूं। यह सुनकर राक्षस राज मन ही मन सोचने लगा अब किस तरह काम करना चाहिए। यह जन्म से ब्रह्मण है और महात्मा राज धर्मा का सुहद् है ।उन्होंने ही इसे मेरे पास भेजा है। अतः उनका प्रिय कार्य अवश्य करूंगा आज कार्तिक की पूर्णिमा है आज के दिन मेरे यहां हजारों ब्रह्मण भोजन करेंगे उनके साथ इसे भी भोजन कराकर धन देना चाहिए।
तदनन्तर- भोजन के समय हजारों विद्वान् ब्राह्मण स्नान करके रेशमी वस्त्र धारण किए वे वहां आ पहुंचे राक्षस राज की आज्ञा से सेवकों ने जमीन पर कुसाओं के सुंदर आसन बिछा दिए जब ब्राह्मण उन पर विराजमान हो गए तो राजा विरुपाक्ष ने तिल कुश और जल लेकर उनका विधिवत पूजन किया उनमें वेश्ववेदेवो एवं पितरो तथा अग्नि देव की भावना करके उसने सब को चंदन लगाया और फूलों की मालाएं पहनाई उस समय उत्तम विधि से पूजा संपन्न होने पर उन ब्राह्मणों की बड़ी सोभा हुई  ब्राह्मणों को हीरो से जड़ी हुई सोने की थाली में घी से बने हुए मीठे पकवान परोस कर उनके आगे रख दिए ।
भोजन के पश्चात ब्राह्मणों के समक्ष रत्नों की ढेरी लगा कर विरुपाक्ष ने कहा विप्रवरो आप लोग अपनी इच्छा और शक्ति के अनुसार रत्नों की ढेरी उठा ले ,और जिसमें आपने भोजन किया है ।उस स्वर्ण पात्र को भी अपने साथ ले जाएं। राक्षस राज के ऐसा कहने पर ब्राह्मणों ने इच्छा अनुसार रत्नों को ले लिया ।इस प्रकार उत्तम रतन और वस्त्र द्वारा सत्कार पाकर सभी ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुए तद अंतर विरुपाक्ष ने नाना देशों से आए उन ब्राह्मणों से कहा विप्र बरो आज दिन भर आप लोगों को राक्षसों से भय नहीं है मौज करते हुए अपने अपने अभीष्ट स्थान को चले जाइए विलंब ना कीजिए।

 यह सुनकर ब्राह्मण चारू दिशाओं की ओर भाग चले ; गौतम भी सोने का बोझ  लेकर जल्दी जल्दी चलता हुआ बरगद के वृक्ष के पास आया वह बड़ी कठिनाई से उस भार को ढो रहा था । वहां पहुंचते ही थक कर बैठ गया भूख से वह और भी क्लांत हो  रहा था । तभी राज धर्मा पक्षी ने अपने पंखों से हवा करके उसकी थकावट दूर की फिर पूजन करके उसके लिए भोजन का प्रबंध किया विश्राम कर लेने के बाद गौतम ने सोचा मैंने मोह वश  के कारण स्वर्ण का बड़ा भारी बुझा उठा लिया है अभी दूर जाना है। और रास्ते में खाने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है । कैसे प्राण धारण करूंगा यही सोचते हुए उस पापी ने मन में विचार किया यह वकों का राजा राज धर्मा मेरे पास ही तो है क्यों ना इसी को मारकर साथ ले लूं और शीघ्रता पूर्वक यहां से चल दूं।


उस समय वह पक्षी गौतम पर विश्वास करके उसके पास ही सो रहा था उधर वह दुष्ट आत्मा और कितने उसे मार डालेगी तदबीर सोच रहा था उसके सामने ही आग जल रही थी उसमें से एक जलती हुई लोहाटी  लेकर उसने निश्चिंत सोते हुए राजधर्मा को मार डाला उसे मारकर गौतम को बड़ी प्रसन्नता हुई । उस हत्या के पाप पर उसकी दृष्टि नहीं गई ,उसने मरे हुए पक्षी के पंख और बाल नोच कर उसे आग में पकाया और साथ में ले लिया है सोने की गठरी सर पर लादकर बड़ी तेजी से घर की ओर चल दिया दूसरे दिन विरुपाक्ष ने अपने पत्र से कहा बेटा! आज पक्षियों में श्रेष्ठ राजधर्मा का दर्शन नहीं हुआ है। वे प्रतिदिन प्रातः काल ब्रह्मा जी को प्रणाम करके लौटने पर यही सी आया करते थे । इधर दो शाम बीत गई किंतु वह मेरे घर में  नहीं पधारे आज मेंरे मन में  संदेह उठ रहे हैं । ना जाने मेरे मित्र को क्या हो गया है ।तुम उनका पता लगाओ कहीं उस पापी ब्राह्मण ने तो नहीं मार डाला । वह बड़ा निर्दई और दुराचारी जान पड़ता था। सूरत शक्ल तो उसकी भयानक थी मानो कोई दुष्ट लूटेरा हो नीच गौतम वहां से लौटकर उन्हीं के पास गया था । इसलिए मेरे मन में संदेह हो रहा है बेटा ! तुम यहां से शीघ्र ही राजधर्मा के स्थान पर जाओ और तुरंत इस बात का पता लगाओ कि भी जीवित है या नहीं।

पिता की आज्ञा पाकर बहुत से राक्षसों के साथ उस बट वृक्ष के पास गया तो वहां राज धर्मा का कंकाल पड़ा दिखाई दिया । यह देख कर राक्षस राज का पुत्र  रो पड़ा और गौतम को पकड़ने के लिए पूरी शक्ति लगाकर पीछा किया राक्षसों ने गौतम को पकड़ लिया साथ ही उसके साथ हड्डियों और पंखों सहित राजधर्मा की   लाश  भी मिल गई । उसको लेकर वे तुरंत ही मेरु बज्र नगर में जा पहुंचे , वहां राक्षसों ने राजधर्मा के मृत शरीर और उस पापी एवं कृतघ्न गौतम को राजा के सामने पेश किया मित्र की दशा देखकर राजा विरुपाक्ष अपने मंत्री और पुरोहित के साथ फूट-फूट कर रोने लगा राज महल में बढ़ा कोहराम मचा स्त्री और बच्चों सहित सारे नगर में मातम छा गया राजा ने कहा बेटा इस पापी का बध कर डालो और समस्त राक्षस इसके मास के टुकड़ों को इच्छा अनुसार बांटकर खा जाएं ; राक्षस राज के कहने पर उन्होंने सिर झुका कर प्रणाम करते हुए कहा महाराज आप हम लोगों को इसका पाप भक्षण करने के लिए ना दीजिए राजा ने कहा बहुत अच्छा तुम लोग इसे दस्सुओ के हवाले कर दो। आज्ञा पाते ही राक्षस हाथ में त्रिशूल और पट्टिस लेकर टूट पड़े और उस पापी के टुकड़े-टुकड़े करके दस्युओं को देने लगे   किंतु उन्होंने भी उसका मांस खाना स्वीकार नहीं किया ब्रह्महत्या रे शराबी चोर और प्रतिज्ञा भंग करने वाले मनुष्यों के लिए पाप से छूटने का प्रायश्चित बताया गया है मगर कृतघ्न के उद्धार का कोई भी उपाय नहीं कहा गया है।

तदनन्तर   विरुपाक्ष ने वकराज के लिए एक चिता तैयार कराई और उसके ऊपर रख कर उसमें आग लगाई विधिपूर्वक उसका दाह कर्म संपन्न किया उसी समय दक्ष कन्या सुरभि देवी वहां आईं और आसमान में ऊपर खड़ी हो गई उनके मुख से दूध मिश्रित फैन निकल कर राज धर्मा की चिता पर गिरा और उसके स्पर्श से वह जीवित हो  गया तब वह उड़कर विरुपाक्ष के पास पहुंचा और दोनों मित्र गले मिले इतने ही में देवराज इंद्र भी विरुपाक्ष की नगर में आ आ पहुंचे और बोले बड़े सौभाग्य की बात है। कि तुम्हारे द्वारा राजधर्मा को जीवन मिला ।  इसके बाद  राजधानी  इंद्र को प्रणाम करके कहा  सुरेश्वर  यदि  आपकी  मुझ पर  कृपा हो तो  मेरे  मित्र  गौतम को  जीवित कर दीजिए  इंद्र ने  उसकी बात मान ली  और  अमृत  छिड़ककर  उस  ब्राह्मण को  जीवित कर दिया  गौतम के  जीवित  होने पर  राज धर्मा ने  बड़ी  प्रसन्नता के साथ  उसे  मित्र भाव से  गले लगाया  और  उस पापी को  धन सहित  विदा करके वह अपने  स्थान पर  आ गया । गौतम पुन: भीलों के ही गांव में जाकर रहने लगा वहां उसने उस शूद्र जाति की स्त्री की पेट से अनेकों पापा चारी पुत्रों को जन्म दिया तब देवताओं ने गौतम को महान साथ देते हुए कहा यह पापी कितने है और दूसरा पति स्वीकार करने वाली स्त्री की पेट से बहुत समय से संतान पैदा करता आ रहा है इस पाप के कारण इसको घोर नरक में गिरना पड़ेगा।

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